Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


27

बरसात के दिन थे, छटा छाई हुई थी। पंडित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तट पर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गांवों का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और संध्या होने से पहले चुनार के पास एक गांव में जाना चाहते थे। उन्हें पता मिला था कि उस गांव में एक सुयोग्य वर है। उमानाथ आज ही अमोला लौट जाना चाहते थे, क्योंकि उनके गांव में एक छोटी-सी फौजदारी हो गई थी और थानेदार साहब कल तहकीकात करने आने वाले थे। मगर अभी तक नाव उसी पार खड़ी थी। उमानाथ को मल्लाहों पर क्रोध आ रहा था। सबसे अधिक क्रोध उन मुसाफिरों पर आ रहा था, जो उस पार धीरे-धीरे नाव में बैठने आ रहे थे। उन्हें दौड़ते हुए आना चाहिए था, जिससे उमानाथ को जल्द नाव मिल जाए। जब खड़े-खड़े बहुत देर हो गई तो उमानाथ ने जोर से चिल्लाकर मल्लाहों को पुकारा। लेकिन उनकी कंठध्वनि को मल्लाहों के कान में पहुंचने की प्रबल आकांक्षा न थी। वह लहरों से खेलती हुई उन्हीं में समा गई।

इतने में उमानाथ ने एक साधु को अपनी ओर आते देखा। सिर पर जटा, गले में रुद्राक्ष की माला, एक हाथ में सुलफे की लंबी चिलम, दूसरे हाथ में लोहे की छड़ी, पीठ पर मृगछाला लपेटे हुए आकर नदी के तट पर खड़ा हो गया। वह भी उस पार जाना चाहता था।

उमानाथ को ऐसी भावना हुई कि मैंने इस साधु को कहीं देखा है, पर याद नहीं पड़ता कि कहां? स्मृति पर परदा-सा पड़ा हुआ था।

अकस्मात् साधु ने उमानाथ की ओर ताका और तुरंत उन्हें प्रणाम करके बोला– महाराज! घर पर तो सब कुशल है, यहां कैसे आना हुआ?

उमानाथ के नेत्र पर से परदा हट गया। स्मृति जाग्रत हो गई। हम रूप बदल सकते हैं, शब्द को नहीं बदल सकते। यह गजाधर पांडे थे।

जब से सुमन का विवाह हुआ था, उमानाथ कभी उसके पास नहीं गए थे। उसे मुंह दिखाने का साहस नहीं होता था। इस समय गजाधर को इस भेष में देखकर उमानाथ को आश्चर्य हुआ। उन्होंने समझा, कहीं मुझे फिर न धोखा हुआ हो। डरते हुए पूछा– शुभ नाम?

साधु– पहले तो गजाधर पांडे था, अब गजानन्द हूं।

उमानाथ– ओह! तभी तो मैं पहचान न पाता था। मुझे स्मरण होता था कि मैंने कहीं आपको देखा है, पर आपको इस भेष में देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। बाल-बच्चे कहां हैं?

गजानन्द– अब उस मायाजाल से मुक्त हो गया।

उमानाथ– सुमन कहां है?

गजानन्द– दालमंडी के कोठे पर।

उमानाथ ने विस्मित होकर गजानन्द की ओर देखा और तब लज्जा से उसका सिर झुक गया। एक क्षण के बाद उन्होंने पूछा– यह कैसे हुआ, कुछ बात समझ में नहीं आती?

गजानन्द– उसी प्रकार जैसे संसार में प्रायः हुआ करता है। मेरी असज्जनता और निर्दयता, सुमन की चंचलता और विलास-लालसा दोनों ने मिलकर हम दोनों का सर्वनाश कर दिया। मैं अब उस समय की बातों को सोचता हूं, तो ऐसा मालूम होता है कि एक बड़े घर की बेटी से ब्याह करने में बड़ी भूल की और इससे बड़ी भूल यह थी कि ब्याह हो जाने पर उसका उचित आदर-सम्मान नहीं किया। निर्धन था, इसलिए आवश्यक था कि मैं धन के अभाव को अपने प्रेम और भक्ति से पूरा करता। मैंने इसके विपरीत निर्दयता से व्यवहार किया। उसे वस्त्र और भोजन का कष्ट दिया। वह चौका-बर्तन, चक्की में निपुण नहीं थी और न हो सकती थी, पर उससे यह सब काम लेता था और जरा भी देर हो जाती, तो बिगड़ता था। अब मुझे मालूम होता है कि मैं ही उसके घर से निकलने का कारण हुआ। मैं उसकी सुंदरता का मान न कर सका, इसलिए सुमन का भी मुझसे प्रेम नहीं हो सका। लेकिन वह मुझ पर भक्ति अवश्य करती थी। पर उस समय मैं अंधा हो रहा था। कंगाल मनुष्य धन पाकर जिस प्रकार फूल उठता है, उसी तरह सुंदर स्त्री पाकर वह संशय और भ्रम में आसक्त हो जाता है। मेरा भी यही हाल था। मुझे सुमन पर अविश्वास रहा करता था और प्रत्यक्ष इस बात को न कहकर मैं अपने कठोर व्यवहार से उसके चित्त को दुःखी किया करता था। महाशय, मैंने उसके साथ जो-जो अत्याचार किए, उन्हें स्मरण करके आज मुझे अपनी क्रूरता पर इतना दुःख होता है कि जी चाहता है कि विष खा लूं। उसी अत्याचार का अब प्रायश्चित कर रहा हूं। उसके चले जाने के बाद दो-चार दिन तक तो मुझ पर नशा रहा, पर जब ठंडा हुआ, तो वह घर काटने लगा। मैं फिर उस घर में न गया। एक मंदिर में पुजारी बन गया। अपने हाथ से भोजन बनाने के कष्ट से बचा। मंदिर में दो-चार मनुष्य नित्य ही आ जाते। उनके पास सत्संग का सुअवसर मिल जाता। कभी-कभी साधु-महात्मा भी आ जाते। उनके पास सत्संग का सुअवसर मिल जाता। उनकी ज्ञान-मर्म की बातें सुनकर मेरा अज्ञान कुछ-कुछ मिटने लगा। मैं आपसे सत्य कहता हूं, पुजारी बनते समय मेरे मन में भक्ति का भाव नाम-मात्र को भी न था। मैंने केवल निरुद्यमता का सुख और उत्तम भोजन का स्वाद लूटने के लिए पूजा-वृत्ति ग्रहण की थी, पर धर्म-कथाओं के पढ़ने और सुनने से मन में भक्ति और प्रेम का उदय हुआ और ज्ञानियों के सत्संग से भक्ति ने वैराग्य का रूप धारण कर लिया। अब गांव-गांव घूमता हूं और अपने से जहां तक हो सकता है, दूसरों का कल्याण करता हूं। आप क्या काशी से आ रहे हैं?

उमानाथ– नहीं, मैं भी एक गांव से आ रहा हूं, सुमन की एक छोटी बहिन है, उसी के लिए वर खोज रहा हूं।

गजानन्द– लेकिन अबकी सुयोग्य वर खोजिएगा।

उमानाथ– सुयोग्य वरों की तो कमी नहीं है, पर उसके लिए मुझमें सामर्थ्य भी तो हो? सुमन के लिए क्या मैंने कुछ कम दौड़-धूप की थी?

गजानन्द– सुयोग्य वर मिलने के लिए आपको कितने रुपयों की आवश्यकता है?

उमानाथ– एक हजार तो दहेज ही मांगते हैं और सब खर्च अलग रहा।

गजानन्द– आप विवाह तय कर लीजिए। एक हजार रुपये का प्रबंध ईश्वर चाहेंगे, तो मैं कर दूंगा। यह भेष धारण करके अब लोगों को आसानी से ठग सकता हूं। मुझे ज्ञान हो रहा है कि मैं प्राणियों का बहुत उपकार कर सकता हूं। दो-चार दिन में आपके ही घर पर आपसे मिलूंगा।

नाव आ गई। दोनों नाव में बैठे। गजानन्द तो मल्लाहों से बातें करने लगे, लेकिन उमानाथ चिंतासागर में डूबे थे। उनका मन कह रहा था कि सुमन का सर्वनाश मेरे ही कारण हुआ।

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